हिमाचल दस्तक : रमेश सिद्धू : संपादकीय : तो सभी किंतु-परंतुओं पर विराम लगाते हुए धर्मशाला व पच्छाद से बीजेपी के दोनों नए उम्मीदवारों ने नवरात्र के शुभ अवसर पर शुभ मुहूर्त में नामांकन भर दिए। दोनों ही उम्मीदवारों ने नॉमिनेशन तो फाइल कर दिए, लेकिन दोनों को टिकट दिए जाने को लेकर मचा बवाल थमने की बजाय और मुखर होता नजर आ रहा है।
शांता-धूमल के खींचतान वाले युग के बाद सिर्फ कर्मठता या पार्टी के प्रति वफादारी की पूछ होने की उम्मीद लगाए बैठे कार्यकर्ताओं व समर्थकों को टिकट आवंटन हजम नहीं हो रहा। आलम यह हो गया है कि शांता व धूमल खेमे ने तो हंगामा बरपा ही रखा है, जयराम के नेतृत्व में नए युग के क्षत्रप भी हाय-तौबा मचा रहे हैं। सोचा नहीं था कि सिर्फ दो सीटों पर टिकटों का आवंटन ही हंगामाखेज हालात पैदा कर देगा। 68 विधानसभा क्षेत्रों के लिए चुनाव होने की स्थिति में क्या होगा, राम ही जाने। बतौर बागी उम्मीदवार नामांकन भरने वाले आशीष सिक्टा, दयाल प्यारी, राकेश चौधरी प्रदेशवासियों के लिए भले ही अंजान नाम हों, लेकिन अपने-अपने क्षेत्र में तीनों की अपनी अलग पहचान है और रुतबा भी। तीनों को ही टिकट मिलने की पूरी उम्मीद थी।
प्रदेश की राजनीति को थोड़ा-बहुत भी समझने वाले जानते हैं कि यहां एक बार जिस नेता के पैर जम गए, वर्षों तक सीट नहीं तो कम से कम टिकट बपौती बनी रहती है। इस बार नए उम्मीदवार के पास पैर जमाने का मौका था, दोबारा कितने सालों बाद मिले मालूम नहीं। हालांकि बागी होने पर अनदेखी का शिकार होने का हवाला हमेशा ही सबको हजम होने वाला कारण रहता है। लेकिन अगर आप पार्टी के कर्मठ कार्यकर्ता हैं, वास्तव में विचारधारा से जुड़े हैं, तो पार्टी का निर्णय भी बिना किसी किंतु-परंतु के स्वीकार होना चाहिए।
टिकट मांगना हर कार्यकर्ता का अधिकार है, उसके लिए पूरी ताकत से लड़ाई लडऩा भी जायज है। लेकिन, लड़ाई सिर्फ तब तक जब तक किसी एक को पार्टी चेहरा बनाकर मैदान-ए-जंग में नहीं उतार देती। अब चुपड़ी-चुपड़ी खाने की दौड़ में पिछडऩे पर हंगामा बरपा दें, सरकार या पार्टी नेतृत्व को कोसने लगें तो किसी ‘व्यक्ति विशेष’ के खिलाफ सोचे-समझे अभियान का हिस्सा होने का शक उपजना लाजिमी है।