एक से अपने दूर, दूसरे के सपने अधूरे नई फकीरी बन गई भिक्षापात्र का काल
साझे गम की मार
हिमाचल दस्तक : उदयबीर पठानिया : वोटों के लिए जनता के पीछे तो क्या भागना, धर्मशाला में बीजेपी-कांग्रेस अपने ही लोगों के पीछे भाग रही हैं। वजह है, इनके पास रिकाङ्खर्ड न होना। कांग्रेस की सभी अपनों के नाम-पतों वाली पॉलिटिकल डायरियां और भाजपा के तमाम बही-खाते पुराने खिलाडिय़ों के पास मौजूद हैं। दोनों मुख्य दल कागजी इन्फॉर्मेशन के दलदल में धंस गए हैं। इस वजह से चुनाव प्रचार अभियान भी फंस गया है।
सबसे बड़ा हल्ला तो कांग्रेस के बीच में है। परिवारवाद की सियासत के आदी हो चुके धर्मशाला के आम कांग्रेसियों को अब होश आई है कि उनके पास तो कोई ऐसा डाटा ही नहीं है जिसके दम पर वे सब पुराने कांग्रेसियों से संपर्क कर सकें। बताया जा रहा है कि बीते 7 साल का सारा डाटा कंप्यूटराइज्ड तरीके से सहेजा गया था। इसके चलते किसी के पास भी कोई कागजी दस्तावेज नहीं है। सब हार्ड डिस्क में होने की वजह से कांग्रेसी खुद को फील्ड में ढीला फील कर रहे हैं।
एक बड़ी टीम तो अब याददाश्त के दम पर उन लोगों को याद करके संपर्क करने में लगी हुई है, जिनके दम पर वह खुद में दम भर सके। इनको कोई बैकअप पूर्व कांग्रेस से नहीं मिलने की वजह से ये लोग अब बैकफुट पर भी हैं। एकदम नए-नवेले चेहरे विजय इंद्र कर्ण के लिए चेहरे की पहचान न होने का संकट गहराया हुआ है।
वहीं भाजपा भी कमोबेश ऐसे ही हालातों से जूझ रही है। इनके पास अन्य फ्रंटल ऑर्गेनाइजेशन का डाटा तो है, पर कमल के फूल को ही भाजपा मानने वाले उस काडर का कोई आभास नहीं है, जिसके आटे के दम पर भाजपा सत्ता की रोटी चुनावी चूल्हे पर बनाती आई थी। यह उन लोगों की जमात है जिनके लिए आरएसएस, एबीवीपी नहीं, किशन कपूर का चेहरा ही भाजपा रहा है। यही वजह है कि भाजपा की टीम ऐसे हजारों लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है, जो इनको सियासत का आटा सप्लाई करते थे।
भाजपाई मातृ संगठन आरएसएस और एबीवीपी के दस्ते पहुंच तो हर जगह रहे हैं, मगर उन लोगों के दिल तक पहुंच नहीं बना पा रहे हैं। अधिकांश पुरानी भगवा टीम भी मैदान से गायब है। जनता नए चेहरों को देख परेशान है। हैरानी की बात यह है कि फेस क्राइसिस से भाजपा भी जूझ रही है। विशाल नैहरिया हालांकि कांग्रेसी चेहरे के मुकाबले कुछ सुखद हालत में हैं, मगर जितनी गहरी पैठ की जरूरत है, वह नहीं बन पा रही।
पुरानी सेना इनसे दूरी बनाए हुए है, ताकि चेहरे की पहचान का अभाव भी कोई फैक्टर बन जाए। यह पुरानी टीम सिर्फ फॉरमैलिटी के लिए ही सामने आ रही है। दोनों दल डाटा और आटा के चक्कर मे गोल-गोल घूम रहे हैं। कमोबेश हालात यह बन गए हैं कि नए चेहरों की झोली में टिकट तो दोनों दलों ने डाल दी, मगर इस नई फकीरी को कामयाबी का गुरु मंत्र देने वाला कोई नहीं है।
कांग्रेस मजबूर, भाजपा में गुरूर
दरअसल धर्मशाला में कांग्रेस तो अपने अंदुरूनी कल्चर की वजह से मार खा रही है। हर कोई नेता बना हुआ है, कार्यकर्ता कोई नहीं है। भाजपा में कार्यकर्ता हैं, मगर कोई ऐसा नेता अभी तक सामने नहीं आया है, जो इन कार्यकर्ताओं की भीड़ को सही डाइरेक्शन दे सके। बड़े नेता गुरूर में हैं। सत्ता की वजह से यह अपनी धमक का रिश्ता बना रहे हैं, मगर पार्टी की चमक का नहीं।
पिटी हुई हैं मैनेजमेंट्स
बीजेपी-कांग्रेस दोनों में कहने को तो कांगड़ा के कथित धुरंधरों की फौजें मैदान में आमने-सामने हैं, पर नतीजा सिफर ही है। दोनों दल अपने बागियों को मना नहीं पाए हैं। बागी नेता जातीय समीकरणों के पेड़ पर बाग-बाग हो रहे हैं और ये नेतागण पेड़ की जड़ में बैठे इनको पात-पात होते देख रहे हैं।